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अय्योब के साथ में मनुष्य एवं परमेश्वर के मध्य मध्यस्थ कोई नहीं 
 1 तब अय्योब ने और कहा: 
 2 “वस्तुतः मुझे यह मालूम है कि सत्य यही है. 
किंतु मनुष्य भला परमेश्वर की आंखों में निर्दोष कैसे हो सकता है? 
 3 यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर से वाद-विवाद करना चाहे, 
तो वह परमेश्वर को एक हजार में से एक प्रश्न का भी उत्तर नहीं दे सकेगा. 
 4 वह तो मन से बुद्धिमान तथा बल के शूर हैं. 
कौन उनकी हानि किए बिना उनकी उपेक्षा कर सका है? 
 5 मात्र परमेश्वर ही हैं, जो विचलित कर देते हैं, 
किसे यह मालूम है कि अपने क्रोध में वह किस रीति से उन्हें पलट देते हैं. 
 6 कौन है जो पृथ्वी को इसके स्थान से हटा देता है, 
कि इसके आधार-स्तंभ थरथरा जाते हैं. 
 7 उसके आदेश पर सूर्य निष्प्रभ हो जाता है, 
कौन तारों पर अपनी मोहर लगा देता है? 
 8 कौन अकेले ही आकाशमंडल को फैला देता है, 
कौन सागर की लहरों को रौंदता चला जाता है; 
 9 किसने सप्त ऋषि, मृगशीर्ष, कृतिका 
तथा दक्षिण नक्षत्रों की स्थापना की है? 
 10 कौन विलक्षण कार्य करता है? 
वे कार्य, जो अगम्य, आश्चर्यजनक एवं असंख्य भी हैं. 
 11 यदि वे मेरे निकट से होकर निकलें, वह दृश्य न होंगे; 
यदि वह मेरे निकट से होकर निकलें, मुझे उनका बोध भी न होगा. 
 12 यदि वह कुछ छीनना चाहें, कौन उन्हें रोक सकता है? 
किसमें उनसे यह प्रश्न करने का साहस है, ‘यह क्या कर रहे हैं आप?’ 
 13 परमेश्वर अपने कोप को शांत नहीं करेंगे; 
उनके नीचे राहाब* 9:13 राहाब एक पौराणिक समुद्री राक्षस जो प्राचीन साहित्य में अराजकता का प्रतिनिधित्व करता है के सहायक दुबके बैठे हैं. 
 14 “मैं उन्हें किस प्रकार उत्तर दे सकता हूं? 
मैं कैसे उनके लिए दोषी व निर्दोष को पहचानूं? 
 15 क्योंकि यदि मुझे धर्मी व्यक्ति पहचाना भी जाए, तो उत्तर देना मेरे लिए असंभव होगा; 
मुझे अपने न्याय की कृपा के लिए याचना करनी होगी. 
 16 यदि वे मेरी पुकार सुन लेते हैं, 
मेरे लिए यह विश्वास करना कठिन होगा, कि वे मेरी पुकार को सुन रहे थे. 
 17 क्योंकि वे तो मुझे तूफान द्वारा घायल करते हैं, 
तथा अकारण ही मेरे घावों की संख्या में वृद्धि करते हैं. 
 18 वे मुझे श्वास भी न लेने देंगे, 
वह मुझे कड़वाहट से परिपूर्ण कर देते हैं. 
 19 यदि यह अधिकार का विषय है, तो परमेश्वर बलशाली हैं! 
यदि यह न्याय का विषय है, तो कौन उनके सामने ठहर सकता है? 
 20 यद्यपि मैं ईमानदार हूं, मेरे ही शब्द मुझे दोषारोपित करेंगे; 
यद्यपि मैं दोषहीन हूं, मेरा मुंह मुझे दोषी घोषित करेंगे. 
 21 “मैं दोषहीन हूं, 
यह स्वयं मुझे दिखाई नहीं देता; 
मुझे तो स्वयं से घृणा हो रही है. 
 22 सभी समान हैं; तब मेरा विचार यह है, 
‘वे तो निर्दोष तथा दुर्वृत्त दोनों ही को नष्ट कर देते हैं.’ 
 23 यदि एकाएक आई विपत्ति महामारी ले आती है, 
तो परमेश्वर निर्दोषों की निराशा का उपहास करते हैं. 
 24 समस्त को दुष्ट के हाथों में सौप दिया गया है, 
वे अपने न्यायाधीशों के चेहरे को आवृत्त कर देते हैं. 
अगर वे नहीं हैं, तो वे कौन हैं? 
 25 “मेरे इन दिनों की गति तो धावक से भी तीव्र है; 
वे उड़े चले जा रहे हैं, इन्होंने बुरा समय ही देखा है. 
 26 ये ऐसे निकले जा रहे हैं, कि मानो ये सरकंडों की नौकाएं हों, 
मानो गरुड़ अपने शिकार पर झपटता है. 
 27 यद्यपि मैं कहूं: मैं अपनी शिकायत प्रस्तुत नहीं करूंगा, 
‘मैं अपने चेहरे के विषाद को हटाकर उल्लास करूंगा.’ 
 28 मेरे समस्त कष्टों ने मुझे भयभीत कर रखा है, 
मुझे यह मालूम है कि आप मुझे निर्दोष घोषित नहीं करेंगे. 
 29 मेरी गणना दुर्वृत्तों में हो चुकी है, 
तो फिर मैं अब व्यर्थ परिश्रम क्यों करूं? 
 30 यदि मैं स्वयं को बर्फ के निर्मल जल से साफ कर लूं, 
अपने हाथों को साबुन से साफ़ कर लूं, 
 31 यह सब होने पर भी आप मुझे कब्र में डाल देंगे. 
मेरे वस्त्र मुझसे घृणा करने लगेंगे. 
 32 “परमेश्वर कोई मेरे समान मनुष्य तो नहीं हैं, कि मैं उन्हें वाद-विवाद में सम्मिलित कर लूं, 
कि मैं उनके साथ न्यायालय में प्रवेश करूं. 
 33 हम दोनों के मध्य कोई भी मध्यस्थ नहीं, 
कि वह हम दोनों के सिर पर हाथ रखे. 
 34 परमेश्वर ही मुझ पर से अपना नियंत्रण हटा लें, 
उनका आतंक मुझे भयभीत न करने पाए. 
 35 इसी के बाद मैं उनसे बिना डर के वार्तालाप कर सकूंगा, 
किंतु स्वयं मैं अपने अंतर में वैसा नहीं हूं.